Tuesday, July 14, 2020

वो दिन ख़ास थे

"चलोगी मेरे साथ फिल्म देखने?" उसने मुझसे पूछा तो मैं चौंक गयी।

मेरे साथ भी कोई फिल्म देखना चाहेगा भला? मुझमें ना बचपना है और ना ही नारिशील कुछ हाव भाव। मैं बिलकुल अपने सपनों और अपने जीवन के परे फूल पत्तियों के सौंदर्य को नहीं देखती।  बिलकुल वैसे ही जैसा कुछ लड़किया कुछ लड़को के बारे में चर्चा करती है।  बेमेल है, बेरस, रूखा, बेकार सा है, कहती हैं।  लड़के क्या कहते होंगे - स्वार्थी है, घरेलू नहीं है, पागल है, बिलकुल बिच है, यही कहते होंगे ।

इसमें सिनेमा देखने की कैसे सूझ गयी लांस को।  लम्बा, सुन्दर, क्लास में सबसे तेज़।  लांस और हम दोस्त कैसे बने, ये याद नही।  पर हम बहुत बातें करते घंटों और काफी दिल से बातें करते।  बहुत जल्द, लांस के बुरे क्षणों में मैं उसे याद आती और मेरे बुरे क्षण में वो मुझे ।  याद है कॉफ़ी और केक पर हमारी बातें कैफ़े के लोगों कप चौंका देती । लंदन के कॉवेन्ट गार्डन मैं कैफ़े मेँ आधी रात तक बतियाने के लिए पैसे चाहिए ।  हम दोनों बाँट लेते बिल ।  मैं उसे कॉफ़ी रेकमेंड करती और वो मुझे बर्गर।  देसी अमेरिकन बर्गर लंदन के राजकीय ह्रदय में।

वो दिन ख़ास थे।   

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So it came back, like a torrent rising from within, not letting her breathe, not letting her live. She thought she could be the sea, the mas...